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पोषक तत्व

गन्ने के गुड़ की बढ़ती मांग : Ganne Ke Gud Ki Badhti Maang

गन्ने के गुड़ की बढ़ती मांग : Ganne Ke Gud Ki Badhti Maang

गन्ने की फसल किसानों के लिए बहुत ही उपयोगी होती है। गन्ने के गुड़ की बढ़ती मांग को देखते हुए किसान इस फसल को ज्यादा से ज्यादा उगाते है। गुड एक ठोस पदार्थ होता है। गुड़ को गन्ने के रस द्वारा प्राप्त किया जाता है। गन्ने की टहनियों द्वारा रस निकाल कर ,इसको आग में तपाया जाता है।जब यह अपना ठोस आकार प्राप्त कर लेते हैं, तब  हम इसे गुड़ के रूप का आकार देते हैं। गुड़  प्रकृति का सबसे मीठा पदार्थ होता है। गुड दिखने में हल्के पीले रंग से लेकर भूरे रंग का दिखाई देता है।

गन्ने के गुड़ की बढ़ती मांग (Growing demand for sugarcane jaggery)

गन्ने के गुड़ के ढेले और चूर्ण कटोरों में [ sugarcane jaggery (gud) in powder, granules and cube form ] किसानों द्वारा प्राप्त की हुई जानकारियों से यह पता चला है।कि किसानों द्वारा उगाई जाने वाली गन्ने गुड़ की फसल में लागत से ज्यादा का मुनाफा प्राप्त होता है।इस फ़सल में जितनी लागत नहीं लगती उससे कई गुना किसान इस फसल से कमाई कर लेता है।जो साल भर उसके लिए बहुत ही लाभदायक होते है।

भारत में गन्ने की खेती करने वाले राज्य ( sugarcane growing states in india)

भारत एक उपजाऊ भूमि है जहां पर गन्ने की फसल को निम्न राज्यों में उगाया जाता है यह राज्य कुछ इस प्रकार है जैसे : उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तरांचल, बिहार ये वो राज्य हैं जहां पर गन्ने की पैदावार होती है।गन्ने की फसल को उत्पादन करने वाले ये मूल राज्य हैं।

गन्ना कहां पाया जाता है (where is sugarcane found)

गन्ना सबसे ज्यादा ब्राजील में पाया जाता है गन्ने की पैदावार ब्राजील में बहुत ही ज्यादा मात्रा में होती है।भारत विश्व में दूसरे नंबर पर आता है  गन्ने की पैदावार के लिए।लोगों को रोजगार देने की दृष्टि से गन्ना बहुत ही मुख्य भूमिका निभाता है।गन्ने की फसल से भारी मात्रा में लोगों को रोजगार प्राप्त होता है तथा विदेशी मुद्रा की भी प्राप्ति कर सकते हैं।

गन्ने की खेती का महीना: (Sugarcane Cultivation Month)

कृषि विशेषज्ञों द्वारा गन्ने की फसल का सबसे अच्छा और उपयोगी महीना अक्टूबर-नवंबर से लेकर फरवरी, मार्च तक के बीच का होता है।इस महीने आप गन्ने की फसल की बुवाई कर सकते हैं और इस फसल को उगाने का यह सबसे अच्छा समय है।

गन्ने की फसल की बुवाई कर देने के बाद कटाई कितने वर्षों बाद की जाती है( After how many years after the sowing of sugarcane crop is harvested)

गुड़ के लिए गन्ने की कटाई [ ganne ki katai ] फसल की बुवाई करने के बाद, किसान  इस फसल से लगभग 3 वर्षों तक फायदा उठा सकते हैं। गन्ने की फसल द्वारा पहले वर्ष दूसरे व तीसरे वर्ष में आप गन्ने की अच्छी प्राप्ति कर सकते हैं। लेकिन उसके बाद यदि आप उसी फसल से गन्ने की उत्पत्ति की उम्मीद करते हैं। तो यह आपके लिए  हानिकारक हो सकता है।  इसीलिए चौथे वर्ष में इसकी कटाई करना आवश्यक होता है। कटाई के बाद अब पुनः बीज डाल कर गन्ने की अच्छी फसल का लाभ उठा सकते हैं।

गन्ने की फसल तैयार करने में कितना समय लगता हैं( How long does it take to harvest sugarcane)

अच्छी बीज का उच्चारण कर गन्ने की खेती करने के लिए उपजाऊ जमीन में गन्ने की फसल में करीबन 8 से 10 महीने तक का समय लगता है।इन महीनों के उपरांत किसान गन्ने की अच्छी फसल का आनंद लेते हैं।

गन्ने की फसल में कौन सी खाद डालते हैं( Which fertilizers are used in sugarcane crop)

ganna ke liye khad गन्ने की फसल की बुवाई से पहले किसान इस फसल में सड़ी गोबर की खाद वह कंपोस्ट फैलाकर जुताई करते हैं। मिट्टियों में इन खादो  को बराबर मात्रा में मिलाकर फसल की बुवाई की जाती है। तथा किसान गन्ने की फसल में डीएपी , यूरिया ,सल्फर, म्यूरेट का भी इस्तेमाल करते है।

गन्ने की फसल में  पोटाश कब डालते हैं( When to add potash to sugarcane crop)

किसान खेती के बाद सिंचाई के 2 या 3 दिन बाद , 50 से 60 दिन के बीच के समय में यूरिया की 1/3 भाग म्यूरेट पोटाश खेतों में डाला जाता है।उसके बाद करीब 80 से 90 दिन की सिंचाई करने के उपरांत यूरिया की बाकी और बची मात्रा को खेत में डाल दिया जाता है।

गन्ना उत्पादन में भारत का विश्व में कौन सा स्थान है (What is the rank of India in the world in sugarcane production)

गन्ना उत्पादन में भारत विश्व में दूसरे नंबर पर आता है। भारत सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक करने वाला देश माना जाता है।इसका पूर्ण श्रय  किसानों को जाता है जिन्होंने अपनी मेहनत और लगन से भारत को विश्व का गन्ना उत्पादन का दूसरा राज्य बनाया है।

गन्ने में पाए जाने वाले पोषक तत्व ( nutrients found in sugarcane)

गन्ने में बहुत सारे पोषक तत्व मौजूद होते हैं जो हमारे शरीर को बहुत सारे फायदे पहुंचाते हैं। गर्मियों में गन्ने के रस को काफी पसंद किया जाता है। शरीर को फुर्तीला चुस्त बनाने के लिए लोग गर्मियों के मौसम में ज्यादा से ज्यादा गन्ने के रस का ही सेवन करते हैं। जिसको पीने से हमारा शरीर काम करने में सक्षम रहें तथा गर्मी के तापमान से हमारे शरीर की रक्षा करें। गन्ना पोषक तत्वों से भरपूर होता है तथा इसमें कैल्शियम  क्रोमियम ,मैग्नीशियम, फास्फोरस कोबाल्ट ,मैग्नीज ,जिंक पोटेशियम आदि तत्व पाए जाते हैं। इसके अलावा इसमें मौजूद आयरन विटामिन ए , बी, सी भी मौजूद होते है। गन्ने में काफी मात्रा में फाइबर,प्रोटीन ,कॉम्प्लेक्स  की मात्रा पाई जाती है गन्ना इन पोषक तत्वों से भरपूर है।

गन्ने की फसल में फिप्रोनिल इस्तेमाल ( Fipronil use in sugarcane crop)

fipronil गन्ने की अच्छी फसल के लिए किसान खेतों में फिप्रोनिल का इस्तेमाल करते हैं किसान खेत में गोबर की खाद मिलाने से पहले कीटाणु नाशक जीवाणुओं से खेत को बचाने के लिए फिप्रोनिल 0.3% तथा 8 - 10 किलोग्राम मिट्टी के साथ मिलाकर जड़ में विकसित करते हैं।जो गन्ने बड़े होते हैं उन में क्लोरोपायरीफॉस 20% तथा 2 लीटर प्रति 400 लीटर पानी मिलाकर जड़ में डालते हैं।

गन्ने की फसल में जिबरेलिक एसिड का इस्तेमाल ( Use of gibberellic acid in sugarcane crop)

गन्ने की फसल में प्रयोग आने वाला जिबरेलिक एसिड ,जिबरेलिक एसिड यह एक वृद्धि हार्मोन एसिड है।जिसके प्रयोग से आप गन्ने की भरपूर फसल की पैदावार कर सकते हैं। किसान इस एसिड द्वारा भारी मात्रा में गन्ने की पैदावार करते हैं।कभी-कभी गन्ने की ज्यादा पैदावार के लिए किसान इथेल का भी प्रयोग करते है। इथेल100पी पी एम में गन्ने के छोटे छोटे टुकड़े  डूबा कर रात भर रखने के बाद इसकी बुवाई से जल्दी कलियों की संख्या निकलने लगती है।

गन्ने की फसल में जिंक डालने के फायदे( Benefits of adding zinc to sugarcane crop)

जिंक सल्फेट को ऊसर सुधार के नाम से भी जाना जाता है।इसके प्रयोग से खेतों में भरपूर मात्रा में उत्पादन होता है। फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए जिंक बहुत ही उपयोगी है।जिंक के इस्तेमाल से खेतों की मिट्टियां भुरभुरी होती हैं तथा जिंक खेतों की जड़ों को मजबूती अता करता है।

गन्ने की फसल की प्रजातियां ( varieties of sugarcane)

ganne ki variety आंकड़ों के अनुसार गन्ने की फसल की प्रजातियां लगभग 96279 दर बोई जाती है। गन्ने की यह प्रजातियां किसानों द्वारा बोई जाने वाली गन्ने की फसलें हैं। हमारी इस पोस्ट के जरिए आपने गन्ने की बढ़ती मांग के विषय में पूर्ण रूप से जानकारी प्राप्त कर ली होगी।जिसके अंतर्गत आपने और भी तरह के गन्ने से संबंधित सवालों के उत्तर हासिल कर लिए होंगे। यदि आप हमारी इस पोस्ट द्वारा दी गई जानकारियों से संतुष्ट है तो ज्यादा से ज्यादा हमारी इस पोस्ट को सोशल मीडिया या अन्य जगहों पर शेयर करें।
Soil Health card scheme: ये सॉइल हेल्थ कार्ड योजना क्या है, इससे किसानों को क्या फायदा होगा?

Soil Health card scheme: ये सॉइल हेल्थ कार्ड योजना क्या है, इससे किसानों को क्या फायदा होगा?

"Swasth Dharaa. Khet Haraa." - Healthy Earth. Green Farm.

सॉयल हेल्थ कार्ड योजना को भारतीय सरकार द्वारा 19 फरवरी 2015 में शुरू किया गया. इस योजना का मुख्य उद्देश्य मिट्टी के पोषक तत्वों की जांच करना है. यदि किसानों को पता होगा कि उन्हें फसल की देखभाल कैसे करनी है तो किसानों को कम खर्च में ज्यादा पैदावार मिलेगी और इन सब के लिए मिट्टी के पोषक तत्वों की जांच करवाना आवश्यक है. साथ ही इस योजना मुख्य उद्देश्य किसानों को अच्छी खाद और पोशाक तत्त्वों के इस्तमाल के लिए जागरुक करना है. सॉयल हेल्थ कार्ड योजना की शुरुआत हमारे देश के प्रधानमंत्री जी ने इसलिए शुरू की ताकि खेती के लिए उपजाऊ जमीन की पहचान कर उसमे खेती लायक पोशाक तत्वों की जांच कर पता लगाया जा सके की किस हिसाब से फसल को देखभाल की जाए. जिस वजह से पैदावार अच्छी होगी. सॉयल हेल्थ कार्ड योजना

मिट्टी के पोषक तत्वों के जांच की क्या जरूरत

मिट्टी के पोषक तत्वों के जांच से कौन सी जमीन कितनी उपजाऊ है और उसमे कितने पोषक तत्वों की जरूरत है. यदि हम ये बिना पता किए कि जमीन में कितने पोषक तत्व है, उसमे पोषक तत्वों को डालते है तो संभव है कि हम खेत में आवश्यकता से अधिक या कम खाद डाल दे. कम खाद डालने पर कम पैदावार होगी वहीं ज्यादा खाद डालने पर खाद और पैसों का नुकसान ही होगा और ये अगली बार की पैदावार में भी असर करेगा.

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नमूने की जांच कहा होगी

नमूने के जांच हेतु आप किसी नजदीकी कृषि विभाग के दफ्तर या स्थानीय कृषि पर्यवेक्षक में जमा करवा सकते है. यदि आपके निकट कोई मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला हो तो आप वहां पर भी जाकर इसकी जांच मुफ्त में करवा सकते है. जिला स्तर पर प्रयोगशाला कहां पर स्थित है उसकी जानकारी farmer.gov.in पोर्टल पर जाकर राज्यवार ली जा सकती है। अतः अपना समय और पैसा बचाने के लिए और अच्छी पैदावार के लिए मिट्टी का परीक्षण जरूर करवाएं.
पौधे को देखकर पता लगाएं किस पोषक तत्व की है कमी, वैज्ञानिकों के नए निर्देश

पौधे को देखकर पता लगाएं किस पोषक तत्व की है कमी, वैज्ञानिकों के नए निर्देश

पहले के जमाने में किसान भाई पौधे की पत्तियों और उसके आकार को देखकर पता लगा पाते थे, कि इसमें कौन से पोषक तत्वों की कमी देखी जा रही है, पर अभी के युवा किसान इस तरह से पोषक तत्वों की कमी को पहचान नहीं पाते हैं। इसी वजह से, बिना अपने खेत की मिट्टी की जांच करवाए हुए ही केमिकल का अंधाधुंध इस्तेमाल किया जा रहा है। बिना पोषक तत्वों की कमी के भी किसी भी खेत में यूरिया डाला जा रहा है, इसी वजह से उस खेत की उत्पादकता कम होने के साथ-साथ वहां की जमीन भी अनुर्वर होती जा रही है। पिछले कुछ सालों से कृषि विभाग के द्वारा सॉइल हेल्थ कार्ड (Soil Health Card) के जरिए किसानों को अपने खेत में मौजूद मृदा में होने वाले पोषक तत्वों की कमी की जानकारी दी जाती है, लेकिन बहुत से लोगों को इस प्रकार के कार्ड की कोई जानकारी ही नहीं होती है।

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पौधों को देखकर पोषक तत्वों की कमी को ऐसे पहचानें

आज, हम सभी किसान भाइयों को उनके खेत में उगने वाले पौधों को देखकर, पोषक तत्वों की कमी को पहचानने की कुछ जानकारी बताएंगे। भारत के सभी खेतों में नाइट्रोजन की मात्रा लगभग उचित मात्रा में पाई जाती है, लेकिन फिर भी यूरिया पर सब्सिडी मिलने की वजह से इसका गलत इस्तेमाल होता है।

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  • सभी किसान भाइयों को जान लेना होगा कि यदि आप के खेत में उगने वाले पौधे की पत्तियां आगे से नुकीली हो जाए और उनका रंग गहरा पीला हो जाए तो उस स्थिति में पौधे का आकार भी छोटा ही रह जाएगा, इस स्थिति में आप पहचान पाएंगे कि उस में नाइट्रोजन की कमी है।
  • यह बात ध्यान रखें कि की पत्तियों का रंग हरा हो जाए तो उस में सल्फर की कमी भी पाई जा सकती है और पत्तियों के बाहरी किनारे पीले शुरू हो जाते है।
  • मेंगनीज पोषक तत्व की कमी के दौरान पत्तियां पीली पड़ जाती है और कुछ समय तक उन्हें पर्याप्त उर्वरक नहीं मिलने पर टूट कर नीचे भी गिर सकती है।
  • जिंक और मैग्नीशियम जैसे पोषक तत्वों की कमी होने से पतियों का आकार बहुत छोटा रह जाता है और उनका रंग बहुत पीला हो जाता है, इस स्थिति से बचने के लिए किसान भाइयों को मैग्नीशियम और जिंक की पूर्ति करने वाले फर्टिलाइजर का इस्तेमाल करना चाहिए।


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  • यदि आप के खेत की मिट्टी में फास्फोरस की कमी रहती है तो आपके पौधे का आकार बहुत ही छोटा दिखाई देगा और उसका रंग तांबे के जैसा हो जाता है, इसके अलावा उस पौधे का तना इतना कमजोर हो जाता है कि वह वजन भी सम्भाल नहीं पता और पत्तियां धीरे-धीरे नीचे गिरना शुरू हो जाती है।
  • कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार कैल्शियम की कमी होने पर पौधे का ऊपरी सिरा धीरे धीरे सूखना शुरू कर देता है और कुछ ही समय में पत्तियां टूट जाती है, इसके अलावा जो नीचे की पत्तियां होती है कैल्शियम की कमी से सबसे ज्यादा प्रभावित होती है और उन्हें निकलने में ही अधिक समय लगता है।
  • यदि आप के खेत में मक्के की खेती की जा रही है, तो कैल्शियम की कमी से पौधे के नाले चिपक जाते हैं और उनसे मक्का बाहर ही नहीं निकल पाता है।
  • बोरोन जैसे कम इस्तेमाल होने वाले पोषक तत्व की कमी से भी पत्तियों का रंग पीला पड़ सकता है और उसकी कलियां सफेद या फिर भूरे रंग की दिखाई देती लगती है।
  • पूसा के वैज्ञानिकों के अनुसार आयरन की कमी होने पर पत्तियों की शिरा एकदम हरी हो जाती है और उसके कुछ समय बाद ही इनका रंग धीरे-धीरे पीला पड़ना शुरू हो जाता है, इन पत्तियों को ध्यान से देखने पर इनमें कोई धब्बा भी नजर नहीं आता है,जिससे कि पौधे की आगे की ग्रोथ पूरी तरीके से रुक सकती है और फिर पत्तियां धीरे-धीरे नीचे की तरफ झुकना शुरू हो जाती है।
  • आयरन की ही कमी होने से इन पत्तियों से एक चिपचिपा पदार्थ निकलने लगता है, जो कि इस पौधे के आसपास में उगने वाले दूसरे छोटे पौधों को भी प्रभावित कर सकता है।
यह बात सभी किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि भारत की मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा पहले से ही पर्याप्त पाई जाती है, लेकिन कुछ मुख्य पोषक तत्वों की कमी की वजह से हमारी खेती की उत्पादकता कम मिलती है।

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आशा करते हैं, कि हमारे किसान भाइयों को इस जानकारी से पौधों को देखकर ही उस में होने वाले पोषक तत्वों की कमी का अंदाजा लगाया जाना आसान हो गया होगा। अब जिन सूक्ष्म तत्वों की कमी होगी, सिर्फ उन्हीं का ही इस्तेमाल खेत में करना पड़ेगा। इससे उर्वरकों पर होने वाले खर्चे भी काफी कम हो जाएंगे, साथ ही खेत की उपज बढ़ने के अलावा आपके मुनाफे में भी अच्छी वृद्धि हो सकेगी।
हाइड्रोपोनिक्स - अब मृदा की जगह पोषक तत्वों वाले पानी में उगाएँ सब्ज़ी और फ़सलें, उपज जानकर हो जाएंगे हैरान

हाइड्रोपोनिक्स - अब मृदा की जगह पोषक तत्वों वाले पानी में उगाएँ सब्ज़ी और फ़सलें, उपज जानकर हो जाएंगे हैरान

आप सभी ने बचपन में एक कहावत तो सुनी ही होगी की: विज्ञानकेबिनामानवजीवनअधूराहै आज इसी विचारधारा पर आगे बढ़ते हुए कृषि क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिक इस स्तर पर पहुँच गए हैं कि अब फसलों को उगाने के लिए मृदा की भी आवश्यकता नहीं है, 

इससे पहले हमने आपको बिना मिट्टी के एयरोपोनिक्स तकनीक से आलू उगाने की तकनीक के बारे में जानकारी उपलब्ध करवायी थी। 

आज हम आपको बिना मृदा के केवल पानी के एक विलियन (Solution) से किसी भी फसल की छोटी पौध और सब्ज़ी उगाने के बारे में जानकारी प्रदान करेंगे, जिसे जल संवर्धन या हाइड्रोपोनिक्स (Hydroponics) तकनीक के नाम से जाना जाता है।

क्या होती है हाइड्रोपोनिक्स (Hydroponics) तकनीक और कब हुई थी इसकी शुरुआत ?

इस तकनीक की शुरुआत अमेरिकन आर्मी के कुछ सैनिकों के द्वारा की गई थी, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब उन्हें प्रशांत महासागर के एक टापू पर कुछ समय के लिए रहना पड़ा था। 

इसी दौरान उनके पास खाने की कमी हो गई थी, तो उन्होंने उसी टापू पर बिना मिट्टी के ही सब्ज़ी की छोटी पौध उगाने की शुरुआत कर अपने खाने की व्यवस्था की। 

इस तकनीक में किसी भी फ़सल की छोटी पौध की जड़ों को ऑक्सीजन और कई मुख्य और सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर पानी में डुबोकर रखा जाता है, इन्हीं पोषक तत्वों को ग्रहण कर यह पौधा वृद्धि करता है।

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हाइड्रोपोनिक्स (Hydroponics) तकनीक से होने वाले फ़ायदे :

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक का इस्तेमाल कर अब भारत में रहने वाले कुछ युवा किसान भी अच्छा ख़ासा मुनाफ़ा कमा रहे हैं, क्योंकि इस तकनीक की मदद से निम्न प्रकार के फ़ायदे हो सकते हैं, जैसे कि :

  • बिना मृदा के फ़सल का उत्पादन :

इस तकनीक के इस्तेमाल का यह सबसे बड़ा फ़ायदा है। इसी वजह से भारत में पाई जाने वाली कुछ ऐसी जगहें, जहाँ की मृदा फसल उत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं है, अब उन स्थानों पर भी अच्छी-ख़ासी खेती की जा रही है।

  • फ़सल की वृद्धि दर पर बेहतर नियंत्रण :

इस तकनीक के इस्तेमाल की वजह से फ़सल की वृद्धि दर को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है, क्योंकि फसल की पौध को दिए जाने वाले पानी के विलयन में पोषक तत्वों की मात्र आसानी से कम या अधिक की जा सकती है। 

इसी वजह से सही समय पर वृद्धि दर को नाप कर पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ाकर वृद्धि दर को भी बढ़ाया जा सकता है।

  • अधिक उत्पादन प्राप्त करना और पर्यावरण जनित रोगों का कम प्रभाव :

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक की मदद से फसल और सब्ज़ी की उपज को आसानी से बढ़ाया जा सकता है, इसके अलावा फसल की छोटी पौध में लगने वाले रोगों से भी आसानी से बचा जा सकता है।

केरल के एर्नाकूलम ज़िले में हाइड्रोपोनिक्स तकनीक का इस्तेमाल करने वाले किसान विजयराज बताते हैं कि पिछले दो वर्षों से इस तकनीक की मदद से उनकी वार्षिक उपज में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है और अब उर्वरकों पर होने वाले ख़र्चे में भी कमी देखने को मिली है। 

इसके अलावा कीटनाशक और दूसरे प्रकार के रोगों के निदान में ख़र्च होने वाली लागत को भी बचाया जा रहा है।

  • मृदा में उगाई जाने वाली फसलों की तुलना में कम पानी का इस्तेमाल :

कम बारिश और कम भूजल स्तर वाली जगहों पर पानी की उपलब्धता कम होती है, ऐसे स्थानों पर इस तकनीक का इस्तेमाल कर आसानी से बेहतर फसल उत्पादन किया जा सकता है।

पिछले 3 वर्षों से तमिलनाडु के मदुरई क्षेत्र में रहने वाले कुछ युवा किसान कम पानी के बावजूद भी बेहतर फसल उत्पादन कर अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं।

हालांकि ऊपर बताए गए फायदों के अलावा, हाइड्रोपोनिक तकनीक के इस्तेमाल से किसानों पर अधिक आर्थिक दबाव पड़ता है, क्योंकि इसके प्लांट को सेट अप करना काफी महंगा पड़ सकता है। 

इसके अलावा वर्तमान में कुछ युवा और डिजिटल तकनीक का ज्ञान रखने वाले किसान भाई ही इस विधि के प्रयोग में सफलता हासिल कर पाए हैं। इस तकनीक को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए हर समय इलेक्ट्रिसिटी (Electricity) की आवश्यकता होती है, जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले किसान भाइयों के लिए अभी संभव नहीं है।

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हाइड्रोपोनिक तकनीक के प्लांट में इस्तेमाल आने वाले उपकरण और अन्य माध्यम :

मुख्यतः इस तकनीक में एक 'सयंत्र' सेटअप किया जाता है, जिसके अंदर ही पौधे को लगाया जाता है और  ऑक्सीजन तथा बेहतर पोषक तत्वों से घुलित पानी के मिश्रण को प्रवाहित किया जाता है, 

बेहतर प्रवाह के लिए इलेक्ट्रिक पंप तथा एयरस्टोन जैसे उपकरणों की आवश्यकता होती है। वर्तमान में हाइड्रोपोनिक तकनीक के लिए भारत में इस्तेमाल किए जा रहे 'सयंत्र' : वर्तमान में केरल और तमिलनाडु में रहने वाले भारतीय युवा किसान, हाइड्रोपोनिक तकनीक में इस्तेमाल आने वाले दो तरह के संयंत्रों का प्रयोग कर रहे हैं, जो कि निम्न प्रकार है :

  • निरंतर पोषक तत्व प्रवाहित होने वाला सयंत्र (Continuous flow Nutrient Film Technique (NFT)) :

हाइड्रोपोनिक संयंत्र में पानी से भरपूर पोषक तत्व का निरंतर प्रवाह किया जाता है और एक बार प्रवाहित होने के बाद पानी को वापस इलेक्ट्रिक पंप की सहायता से दोबारा से पाइप लाइन से गुजारा जाता है।

हाइड्रोपोनिक्स जनित पत्तेदार सब्जियां। लेखक-रयान सोमा; (Hydroponics with leafy vegetables. Author-Ryan Somma) हाइड्रोपोनिक्स जनित पत्तेदार सब्जियां (Hydroponics with leafy vegetables. Source: Wiki; Author-Ryan Somma (रयान सोमा))[/caption]

इस तकनीक की मदद से पौधे की जड़ों को आसानी से ऑक्सीजन और पानी की आपूर्ति की जाती है और पोषक तत्व का प्रबंधन भी बेहतर तरीके से किया जा सकता है।

हाल ही में केरल के अर्नाकुलम और कोच्चि क्षेत्र के किसान भाई इस तकनीक की मदद से टमाटर उगाने में सफल हुए हैं।

  • गहरे पानी में लगाया जाने वाला संयंत्र (Deep Water Culture (DWC) system) :

इस प्रकार के संयंत्र की मदद से आसानी से फसल की अधिक मात्रा का उत्पादन किया जा सकता है और आसानी से बड़े प्लांट को सेटअप किया जा सकता है।

गहरे पानी में होने की वजह से तापमान का बेहतर नियंत्रण किया जा सकता है और इलेक्ट्रिक वाल्व की मदद से पानी के प्रभाव को भी कम या अधिक किया जा सकता है।

डीप वाटर कल्चर से लेट्यूस उत्पादन (Deep water culture (DWC) in lettuce production (Source:Wiki; Author -ArcadiYay) डीप वाटर कल्चर से लेट्यूस उत्पादन (Deep water culture (DWC) in lettuce production (Source:Wiki; Author -ArcadiYay))[/caption]

आंध्र प्रदेश और केरल राज्य के तटीय इलाकों में रहने वाले कई किसान भाई इस संयंत्र की मदद से अच्छा खासा उत्पादन कर पा रहे हैं।

वर्तमान में हाइड्रोपोनिक तकनीक की मदद से टमाटर, कुकुंबर और स्ट्रॉबेरी तथा कई आयुर्वेदिक उत्पाद प्राप्त किए जा रहे हैं। इस तकनीक के इस्तेमाल में प्रत्येक फसल के लिए अलग तरह के पोषक तत्वों का प्रयोग करना पड़ता है।

वर्तमान में कृषि क्षेत्र से जुड़ी कई भारतीय स्टार्टअप कम्पनियाँ और अंतरराष्ट्रीय कंपनियां हाइड्रोपोनिक तकनीक के लिए इस्तेमाल आने वाले पोषक तत्वों को बाजार में उपलब्ध करवा रही है। 

आशा करते हैं कि किसान भाइयों को बिना मृदा के फसल उत्पादन करने की इस नई 'हाइड्रोपोनिक तकनीक' के बारे में संपूर्ण जानकारी मिल गई होगी। यदि आपके क्षेत्र में पाई जाने वाली मर्दा की उर्वरा शक्ति कमजोर है तो इस तकनीक का इस्तेमाल कर बेहतर वैज्ञानिक विधि से अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।

भारत में पाई जाने वाली मृदाओं और उनमें उगाई जाने वाली फसलें

भारत में पाई जाने वाली मृदाओं और उनमें उगाई जाने वाली फसलें

भारत में एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत है, माटी की काया है एक दिन माटी में ही मिल जाएगी। यह कहावत मिट्टी की महत्व को दर्शाती है। कैल्शियम, सोडियम, एल्युमिनियम, मैग्नीशियम, आयरन, क्ले एवं मिनरल ऑक्साइड के अवयवों से मिलकर बनी मिट्टी वातावरण को संशोधित भी करती है। बतादें, कि घर निर्माण से लेकर फसल उत्पादन तक हमारी जिंदगी के तकरीबन हर कार्य में मृदा कहीं न कहीं आवश्यक होती है। किसी भी क्षेत्र में कौन-सी फसल बेहतर ढ़ंग से हो सकती है, यह बात काफी हद तक उस क्षेत्र की मृदा पर आश्रित रहती है। इकोसिस्टम में मिट्टी पौधे की उन्नति के लिए एक जरिए के तौर पर कार्य करती है। यहां हम आपको बताएंगे कि भारत के कौन-से इलाकों में कौन-सी मिट्टी होती है और उसमें कौन-सी फसलें उत्पादित की जा सकती हैं।

दोमट या जलोढ़ मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन सी फसल की जा सकती हैं

जलोढ़ मिट्टी भारत में सबसे बड़े पैमाने पर पाई जाने वाली और सबसे महत्वपूर्ण मिट्टी समूह है। भारत के कुल भूमि रकबे का लगभग 15 लाख वर्ग किमी अथवा 35 प्रतिशत भाग में यही मिट्टी है। भारत की तकरीबन आधी कृषि जलोढ़ मिट्टी पर होती है। जलोढ़ मृदा वह मृदा होती है, जिसे नदियां बहा कर लाती हैं। इस मृदा में नाइट्रोजन एवं पोटाश की मात्रा कम होती है। परंतु, फॉस्फोरस एवं ह्यूमस की अधिकता होती है। जलोढ़ मृदा उत्तर भारत के पश्चिम में पंजाब से लेकर पूरे उत्तरी विशाल मैदान से चलते हुए गंगा नदी के डेल्टा इलाकों तक फैली है। इस मृदा की यह विशेषता है, कि इसमें उवर्रक क्षमता काफी हद तक अच्छी होती है। पुरानी जलोढ़ मृदा को बांगर एवं नई को खादर कहा जाता है। जलोढ़ मृदा में काला चना, हरा चना, सोयाबीन, मूंगफली, सरसों, तिल, जूट, मक्का, तंबाकू, कपास, चावल, गेहूं, बाजरा, ज्वार, मटर,
लोबिया, काबुली चना, तिलहन फसलें, सब्जियों और फलों की खेती इस मृदा में होती है।

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काली मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन से फसल की जा सकती हैं

काली मिट्टी बेसाल्ट चट्टानों (ज्वालामुखीय चट्टानें) के टूटने और इसके लावा के बहने से निर्मित होती है। इस मिट्टी को रेगुर मिट्टी और कपास की मिट्टी भी कहा जाता है। इसमें आयरन, मैग्नेशियम, लाइम और पोटाश होते हैं। परंतु, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और कार्बनिक पदार्थ इसमें कम पाए जाते हैं। इस मृदा का काला रंग टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट और जीवांश (ह्यूमस) की वजह से होता है। यह मृदा डेक्कन लावा के रास्ते में पड़ने वाले इलाकों जैसे कि महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ इलाकों में होती है। नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा और ताप्ती नदियों के किनारों पर यह मिट्टी पाई जाती है। जानकारी के लिए बतादें कि काली मिट्टी में होने वाली प्रमुख फसल कपास है। हालाँकि, इसके अतिरिक्त गन्ना, गेहूं, ज्वार, सूरजमुखी, अनाज की फसलें, चावल, खट्टे फल, सब्ज़ियां, तंबाकू, मूंगफली, अलसी, बाजरा व तिलहनी फसलें होती हैं।

लाल और पीली मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन सी फसल की जा सकती हैं

यह मिट्टी दक्षिणी पठार की पुरानी मेटामार्फिक चट्टानों के टूटने से बनती है। भारत के अंदर यह मृदा ओड़िशा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश के पूर्वी इलाकों, छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र, पश्चिम बंगाल के उत्तरी पश्चिम जिलों, मेघालय की गारो खासी और जयंतिया के पहाड़ी क्षेत्रों, नागालैंड, राजस्थान में अरावली के पूर्वी क्षेत्र, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ भागों में पाई जाती है। यह मृदा कुछ रेतीली होती है और इसमें अम्ल एवं पोटाश की मात्रा ज्यादा होती है जबकि इसके अंदर नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम और ह्यूमस की कमी होती है। लाल मिट्टी का लाल रंग आयरन ऑक्साइड की मौजूदगी की वजह से होता है। परंतु, जलयोजित तौर पर यह पीली दिखाई पड़ती है। चावल, गेहूं, गन्ना, मक्का, मूंगफली, रागी, आलू, तिलहनी व दलहनी फसलें, बाजरा, आम, संतरा जैसे खट्टे फल व कुछ सब्ज़ियों की खेती अच्छी सिंचाई व्यवस्था करके उगाई जा सकती हैं।

लैटेराइट मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन सी फसल की जा सकती हैं

लैटेराइट मृदा पहाड़ियों एवं ऊंची चट्टानों की चोटी से निर्मित होती है। मानसूनी जलवायु के शुष्क एवं नम होने का जो बदलाव होता है, उससे इस मृदा को निर्मित होने में सहायता मिलती है। मृदा में अम्ल एवं आयरन अधिक होता है। वहीं फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, कैल्शियम और ह्यूमस की कमी होती है। इस मृदा को गहरी लाल लैटेराइट, सफेद लैटेराइट एवं भूमिगत जलवायी लैटेराइट में विभाजित किया जाता है। लैटेराइट मृदा केरल, मध्य प्रदेश, ओडिशा, असम, तमिलनाडु और कर्नाटक में पाई जाती है। लैटेराइट मृदा अत्यधिक उपजाऊ नहीं होती है। परंतु दलहन, चाय, कॉफी, रबड़, नारियल, काजू, कपास, चावल और गेहूं की खेती इस मिट्टी में होती है। इस मिट्टी में आयरन की भरपूर मात्रा होती है। इस वजह से ईंट तैयार करने में भी इस मृदा का इस्तेमाल किया जाता है।
जानें किस प्रकार किसान भाई पौधों में पोषक तत्वों की कमी का पता लगा सकते हैं

जानें किस प्रकार किसान भाई पौधों में पोषक तत्वों की कमी का पता लगा सकते हैं

पौधों में भी आम इंसान की ही भांति पोषक तत्वों की कमी होती रहती है, जिसको पूरा करने के लिए उन्हें भी बाहरी पोषक तत्वों पर आश्रित रहना पड़ता है। परंतु, समस्या तब होती है, जब हम उनमें किस पोषक तत्व का अभाव है यह समझ ही नहीं पाते हैं। चलिए आज हम आपको यही बताते हैं, कि आप कैसे किसी पौधे में इसकी पहचान कर सकते हैं। एक फलते-फूलते बगीचे अथवा सफल फसल के लिए स्वस्थ पौधे जरूरी हैं। पोषक तत्वों की कमी पौधों की उन्नति एवं वृद्धि को प्रभावित कर सकता है, जिससे बढ़वार रुक जाती है। वहीं, पत्तियां भी पीली पड़ जाती हैं एवं फल अथवा फूल का उत्पादन खराब हो जाता है। हम आपको आज पौधों में किस तत्व की कब कमी हो रही है इसके विषय में जानकारी प्रदान करेंगे। पौधों को अपनी बढ़वार एवं विकास के लिए बहुत सारे आवश्यक पोषक तत्वों की जरूरत होती है। इन पोषक तत्वों को मोटे रूप में दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है। मैक्रोन्यूट्रिएंट्स और माइक्रोन्यूट्रिएंट्स।

मैक्रोन्यूट्रिएंट्स (Macronutrients)

पौधों को मैक्रोन्युट्रिएंट्स की भरपूर मात्रा में आवश्यकता होती है और इसमें नाइट्रोजन (N), फॉस्फोरस (P), पोटेशियम (K), कैल्शियम (CA), मैग्नीशियम (MG), और सल्फर (S) शम्मिलित हैं।

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सूक्ष्म पोषक तत्व (Micronutrients)

सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता कम मात्रा में होती है और इसमें आयरन (Fe), मैंगनीज (Mn), जिंक (Zn), तांबा (Cu), बोरान (B), मोलिब्डेनम (Mo), एवं क्लोरीन (Cl) शम्मिलित हैं।

पोषक तत्वों की कमी के लक्षणों को पहचानना

पोषक तत्वों की कमी सामान्यतः पौधों की पत्तियों, तनों एवं उनकी वृद्धि में उनके लक्षणों के आधार पर दिखाई देती है। बतादें, कि हम आपको कुछ सामान्य लक्षणों के आधार पर यह जानकारी देंगे कि किस प्रकार आप किसी पौधे में किस तत्व की कमी को पहचान पाऐंगे। नाइट्रोजन (N) की कमी: पुरानी पत्तियों का पीला पड़ना (क्लोरोसिस) जो सिरों से शुरू होकर अंदर की तरफ फैलता है, विकास रुक जाता है।

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फास्फोरस (P) की कमी: लाल-बैंगनी रंग के साथ-साथ गहरे हरे पत्ते, पुरानी पत्तियां नीली-हरी अथवा भूरी हो सकती हैं और मुड़ सकती हैं। पोटेशियम (K) की कमी: पत्तियों के किनारों और सिरों का पीला या भूरा होना, तने कमजोर होना। आयरन (Fe) की कमी: नई पत्तियों पर इंटरवेनल क्लोरोसिस (नसों के बीच पीलापन), पत्तियां सफेद अथवा पीली हो सकती हैं। मैग्नीशियम (Mg) की कमी: पुरानी पत्तियों पर इंटरवेनल क्लोरोसिस, पत्तियां लाल-बैंगनी अथवा मुड़ी हुई हो सकती हैं। कैल्शियम (Ca) की कमी: नई पत्तियाँ विकृत हो सकती हैं और सिरे वापस मर सकते हैं, फलों में फूल के सिरे सड़ सकते हैं। सल्फर (एस) की कमी: नई पत्तियों का पीला पड़ना, रुका हुआ विकास और बीज और फलों का उत्पादन कम होना। सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी: यह सूक्ष्म पोषक तत्व के आधार पर अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए आयरन के अभाव से इंटरवेनल क्लोरोसिस दिखाई देता है। साथ ही, जिंक की कमी से पत्तियां छोटी और विकृत हो जाती हैं। यदि आप इन लक्षणों को किसी भी पौधे में देखते हैं तो आप यह बेहद ही सुगमता से पहचान कर सकते हैं, कि उस पौधे में किस पोषक तत्व की कमी है। एक बार लक्षण का पता चल जाए तो आप उसके मुताबिक उसका उपचार बड़ी सुगमता से खोज सकते हैं।
फसलों में पोषक तत्वों की कमी की जाँच करने का तरीका

फसलों में पोषक तत्वों की कमी की जाँच करने का तरीका

खेती किसानी के दौरान बहुत बार किसानों की फसलें तबाह हो जाती हैं। साथ ही, उत्पादन कम हो जाता है अथवा कई रोग व कीट लग जाते हैं। साथ ही, फसलों में होने वाली इन दिक्कतों के पीछे की एक बड़ी वजह उसमें उपस्थित पोषक तत्वों की कमी भी हो सकती है। इसलिए आज हम आपको इस लेख में फसल के लिए आवश्यक कुछ ऐसे ही पोषक तत्वों के विषय में बताएंगे, जिन पर पौधों की उन्नति व विकास निर्भर करता है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि जिस प्रकार से एक मानव शरीर को पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार से पौधों को भी अपने विकास के लिए विभिन्न पोषक तत्वों की जरूरत होती है। इन पोषक तत्वों की वजह से पौधे अपना विकास, प्रजनन एवं कई तरह की जीवाणु क्रियाओं को कर पाते हैं। यदि ये पोषक तत्व पौधों को वक्त से न मिलें तो इससे उनका विकास रुक जाता है। इन पोषक तत्वों में विशेष तौर पर ऑक्सीजन, पोटाश, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, कार्बन और हाइड्रोजन इत्यादि शम्मिलित हैं। बतादें, कि इन पोषक तत्वों के अभाव का असर फसल की उपज पर पड़ता है। यदि पौधों में इनकी मात्रा में कमी होने पर कृषकों को भरपूर उत्पादन नहीं मिल पाता है। ऐसी स्थिति में आज हम आपको फसलों के लिए ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण पोषक तत्वों के विषय में जानकारी देंगे, जो कि पौधों के लिए बेहद आवश्यक हैं।

पोषक तत्वों की कमी के लक्षण

फसलों में बोरान की कमी के लक्षण

फसल में बोरान के अभाव की वजह से वर्धनशील हिस्से के पास की पत्तियों का रंग पीला हो जाता है। इसके अतिरिक्त कलियां सफेद अथवा हल्के सफेद मृत ऊतक की भांति नजर आती है।

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फसलों में सल्फर/गंधक की कमी के लक्षण

सल्फर/गंधक की कमी के कारण फसल की पत्तियां, शिराओं समेत, गहरे हरे से पीले रंग में तब्दील हो जाती हैं। इसके बाद में यह सफेद हो जाती हैं। गंधक की कमी की वजह से सर्वप्रथम नवीन पत्तियां प्रभावित होती हैं।

फसलों में मैगनीज की कमी के लक्षण

मैगनीज पोषक तत्व की कमी की वजह से पत्तियों का रंग पीला-घूसर अथवा लाल घूसर हो जाता है। वहीं, इसकी शिराएं हरी हो जाती हैं। पत्तियों के किनारे एवं शिराओं का मध्य हिस्सा हरितिमाहीन हो जाता है। हरितिमाहीन पत्तियां अपने सामान्य आकार में ही रह जाती हैं।

फसलों में जिंक/जस्ता की कमी के लक्षण

जिंक/जस्ता की कमी की वजह से सामान्य तौर पर पत्तियों के शिराओं के मध्य हरितिमाहीन के लक्षण नजर आते हैं। बतादें, कि पत्तियों का रंग कांसा की भांति हो जाता है।

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फसलों में मैग्नीशियम की कमी के लक्षण

फसल में यदि मैग्नीशियम की कमी हो जाए, तो पत्तियों के आगे के हिस्से का रंग गहरा हरा होकर शिराओं का बीच का हिस्सा सुनहरा पीला हो जाता है। आखिर में किनारे से अंदर की तरफ लाल-बैंगनी रंग के धब्बे बन जाते हैं।

फसलों में फास्फोरस की कमी के लक्षण

पौधों की पत्तियां फास्फोरस की कमी की वजह से छोटी रह जाती हैं। साथ ही, पौधो का रंग गुलाबी होकर गहरा हरा हो जाता है।

फसलों में कैल्शियम की कमी के लक्षण

कैल्शियम की कमी की वजह से सर्वप्रथम प्राथमिक पत्तियां प्रभावित होती हैं और विलंभ से निकलती हैं। साथ ही, शीर्ष कलियां बर्बाद हो जाती हैं। कैल्शियम की कमी के चलते मक्के की नोर्के चिपक जाती हैं।